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प्रेम-कथा विशेषांक पर बतकही
अभाव आ गरीबी पहिलहूँ रहे।
दुख-दलिद्दर अइसन कि रगरि के देंहि क चोंइटा छोड़ा देव।
लोग आपुस में रोइ-गाइ के जिनिगी बिता लेव, बाकिर मन मइल ना होखे देव।
हारल-थाकल जीव के प्रेमे सहारा रहे।
धीरज आ बल रहे।
आजु एतना तरक्की आ सुबिधा-साधन का बादो लोग अपने में बाझल-हकासल, हहुवाइल, हलकान-परेशान बा।
सँगे रोवे-गावे वाला अँजरा-पँजरा लउकते नइखे।
अब अदिमी क ना, ओकरा पद-पइसा, चीझ-बतुस आ ताकत क मोल बा।
अदिमी के भाव गिरला का पाछा, आदमीयत क गिरावट बा।
खुदगर्जी, लालसा, हिरिस आ डाह-इरिखा जवन ना करावे।
लोग मतलब पर भेंटो-मुलाकात करऽ ता।
दुसरा का खुसी में खुस आ दुख में दुखाये वाली संवेदना बुझला मुवल जातिया।
भौतिकी के जटिल जाल आ बढ़त बाजार अदिमी के शरीरी-भोक्ता बना देले बा।
परायापन आ संवेदनहीनता अन्तर में अइसन पइसल जाता कि भित्तर क राग तत्व मुवल जाता।
हमन में ‘योग’ क सवख जरूर बढ़ल बा, बाकि भोग क रोग जाने नइखे छोड़त।
सरलता, सच्चाई, हिरऊ प्रेम, लगाव, सहानुभूति आ सहकार क नाँवें बुताइल जाता।
ई सब चीज कवनो बिजुली-पानी, आ गैस, तेल त हऽ ना, कि सरकार दे दी।
खेत-बधार आ धन-दऊलत त हऽ ना कि अमीरन का कब्जा में बा।
ई सब त नैसर्गिक जीवन क देन हऽ।
अनुभव से अरजल-सँवारल जाला।
जइसन प्रकृति सिखावेले।
जइसन लोक बतावेला।
भूख, पियास, नीन लेखा प्रेमो अदिमी क शाश्वत जरूरत बा।
फरक अतने बा कि ई ‘हाटे’ ना बिकाय आ किनले ना किनाय।
प्रेम प्रकृति हऽ।
प्रकृति जीवन।
ई ऊ धड़कन हऽ जवन फूल-पतइन में रंग बन के स्पन्दन करेला, नदी, झरना का कल-कल, छल-छल में ध्वनित होला, चिरई-चुरूंग आ भँवरा में राग बन के गंुजित होला, कोयल-पपिहा बन के कूकेला, मोर-मोरनी बनि के नाचेला।
प्रेमी त प्रेम में अतना अचेतन हो जाला कि बेसुधी में अपने के भुला जाला।
हृदय के अनुराग के विविध रंग रूप बा।
लगाव, प्रीति, मोह, ममता, बात्सल्य, सखा भाव, दया, करूना, छोह प्रेमे का जोरे-जवरे विकसेला।
पदारथ रहित त परिभाषा बतावल जाइत।
बुझला ई बतवला, सिखवला आ समझवला से पार आ परे बा।
प्रेम भइले पर एकर परतीति होला।
ई आधा-अधूरा ना, होला त पूरा होला आ अधूरा के पूरा बना देला।
ई जोखाये आ नपाये वाला पदारथ ना हऽ।
प्रेम बेहोसी क नाँव हऽ।
एमे आपन होसे कहाँ रहेला कि कवनो ‘कमेन्ट’ करी।
होश चेतना से होला।
चेतना सोचे-समक्षे के शाक्ति देले, बुद्धि तर्क-वितर्क करावेला।
प्रेम बुद्धि आ चेतना से परे होला।
समझदार आ चल्हाँक लोग एही से एकरा के पागलपन कहेला।
प्रेम में तनिको चल्हाँकी आ सयानापन ना चले।
दुनियाँ क सगरी वैभव आ सरग-सुख के ठेंगा देखावे क कूबत खलिसा प्रेमे में बा।
‘प्रेम’ प बोललो-बतियावल दुलम हो गइल।
प्रेम, प्रतिदान ना माँगे, कीमत ना वसूले, ऊ अपना के उबिछ के देबे जानेला, त्याग आ बलिदानो में ना हिचकिचाला।
मर-मिट जाला बाकि ‘प्रेम’ का पवित्रता प आँच’ ना आवे देला।
गनीमत बा कि ‘लोक’ आ ‘लोक-अभिव्यक्ति में प्रेम क सुर-ताल अभी जीयत बा।
उहाँ प्रेम क गीत अब्वो गवाता आ प्रेम क कहनी एहू घरी कहल जाता।
हमनिये का ना, दुनिया का हर ‘लोक’ में अब्बो ई मगन होके कहल-सुनल, जाता।